तेरे वादों का सफ़र थमने लगा है ,मेरा दिल ये मुन्तज़र डर सा गया है।
ग़म चराग़ों का उठाऊं रात दिन मैं , पर हवाओं से तेरा टांका भिड़ा है ।
दिल वफ़ा के बरिशों से तर-ब-तर है, बे-वफ़ाई,तेरे दामन की फ़िज़ा है।
क्यूं हवस की गलियों मे तुम घूमती हो,सब्र का रस्ता सुकूं से जब भरा है।
मैं ग़रीबी की गली में ख़ुश्फ़हम हूं ,तू अमीरी कें मकां में भी डरा है।
चांदनी को चांद से गर प्यार है,तो ,आसमानी ज़ुल्मों से लड़ने में क्या है।
बिल्डरों का राज है अब इस वतन में, झोपड़ी का हौसला फिर भी खड़ा है ।
डूबना है हुस्न के सागर में मुझको , टूटी फूटी कश्ती है पर हौसला है।
क्रेज़ मोबाइल का है अब आसमां पे ,हाय चिठ्ठी पत्री की सांसें फ़ना है।
बुधवार, 30 जून 2010
गुरुवार, 17 जून 2010
रथ के पहिये
दिल रोया ना आंखें बरसीं ,तुम आये ना सांसें ठहरीं।
ख्वाबों पर भी तेरा बस है , तनहाई में तू ही दिखती।
मिल जाये जो दीद तुम्हारी ,कल ईद हमारी भी मनती।
मजबूत सफ़ीना है तेरा , जर्जर सी है मेरी कश्ती ।
मन्ज़ूर मुझे डूबना लेकिन , दिल की नदियां है कहां गहरी।
सब्र चराग़ों सा रखता मैं , ज़ुल्मी हवायें तुमसे डरतीं ।
अर्श सियासत की छोड़ न तू , मर जायेगी जनता प्यासी ।
वादा तूने तोडा है पर , तुहमत में है मेरी बस्ती ।
तेरा घर मेरा मंदिर है , मेरी जान वहीं है अटकी।
रथ के दो पहिये हम दोनों , तू ही हरदम आगे चलती।
ख्वाबों पर भी तेरा बस है , तनहाई में तू ही दिखती।
मिल जाये जो दीद तुम्हारी ,कल ईद हमारी भी मनती।
मजबूत सफ़ीना है तेरा , जर्जर सी है मेरी कश्ती ।
मन्ज़ूर मुझे डूबना लेकिन , दिल की नदियां है कहां गहरी।
सब्र चराग़ों सा रखता मैं , ज़ुल्मी हवायें तुमसे डरतीं ।
अर्श सियासत की छोड़ न तू , मर जायेगी जनता प्यासी ।
वादा तूने तोडा है पर , तुहमत में है मेरी बस्ती ।
तेरा घर मेरा मंदिर है , मेरी जान वहीं है अटकी।
रथ के दो पहिये हम दोनों , तू ही हरदम आगे चलती।
बुधवार, 16 जून 2010
दिल की दासतां
ये सुलगते हुवे दिल की दास्तां है, , मेरे रग रग में यारों धुआं धुआं है ।
दर्द ग़म तीरगी से सजी है महफ़िल , आज तनहाई ही मेरा पासबां है।
चांदनी का मुझे इंतज़ार तो है , पर घटाओं से लबरेज़ आसमां है ।
कांच का घर बनाकर परीशां हूं मैं , शहर वालों के हाथों में गिट्टियां हैं।
ये मकाने-मुहब्बत है तिनकों का पर, अब ज़माने की नज़रों में आंधियां हैं।
ज़ख्मों की पालकी झुनझुना बजाती , मेरी ग़ज़लों की तहरीर बे-ज़ुबां है ।
ऐ ब्रितानी समन्दर बदल ले रस्ता , खूने-झांसी से तामीर कश्तियां हैं ।
मुल्क खातिर जवानी में बेवफ़ा था, दौरे-पीरी ,शहादत में मेरी हां है ।
सजदे में बैठा हूं रिन्दगाह में मैं , दानी अब तो बताओ खुदा कहां है ।
तिरगी- अंधेरा। पासबां-रक्छख । तामीर- बना। दौरे-पीरी-बुढापे का दौर।
रिन्दगाह-शराबखाना
दर्द ग़म तीरगी से सजी है महफ़िल , आज तनहाई ही मेरा पासबां है।
चांदनी का मुझे इंतज़ार तो है , पर घटाओं से लबरेज़ आसमां है ।
कांच का घर बनाकर परीशां हूं मैं , शहर वालों के हाथों में गिट्टियां हैं।
ये मकाने-मुहब्बत है तिनकों का पर, अब ज़माने की नज़रों में आंधियां हैं।
ज़ख्मों की पालकी झुनझुना बजाती , मेरी ग़ज़लों की तहरीर बे-ज़ुबां है ।
ऐ ब्रितानी समन्दर बदल ले रस्ता , खूने-झांसी से तामीर कश्तियां हैं ।
मुल्क खातिर जवानी में बेवफ़ा था, दौरे-पीरी ,शहादत में मेरी हां है ।
सजदे में बैठा हूं रिन्दगाह में मैं , दानी अब तो बताओ खुदा कहां है ।
तिरगी- अंधेरा। पासबां-रक्छख । तामीर- बना। दौरे-पीरी-बुढापे का दौर।
रिन्दगाह-शराबखाना
रविवार, 13 जून 2010
दर्दे दिल
दर्दे- दिल के अब नज़ारे नहीं होते , आजकल उनके इशारे नहीं होते ।
छोड़ कर जबसे गई तुम, कसम तेरी ,अब तसव्वुर भी तुमहारे नहीं होते ।
गर पतंगे बे-खुदी मे नहीं जीते , शमा मे इतने शरारे नहीं होते ।
जीत कर भी हारना है मुहब्बत में , जंग में इतने खसारे नहीं होते ।
है हिदायत उस खुदा की ,करो उनकी तुम मदद जिनके सहारे नहीं होते ।
ये दग़ाबाज़ी घरों से हुई अपनी , वरना हम भी जंग हारे नहीं होते ।
ज़ख्म भी गहरा दर्द भी तेज़ है वरना, दुश्मनों को हुम पुकारे नहीं होते ।
रो रही है धरती धूल धुआं कचरा से , आजकल मौसम इतने करारे नहीं होते।
ज़ीस्त की कश्ती चली जनिबे सागर , इस सफ़र में फ़िर किनारे नहीं होते ।
हुस्न से गर रब्त रखते नहीं दानी , तो जीवन भर हुम अभागे नहीं होते।
तसव्वुर- यादें शरारे=आग खसारे -नुकसान ज़ीस्त--जीवन जानिबे सागर-सागर की ओर।
रब्त =संबंध
छोड़ कर जबसे गई तुम, कसम तेरी ,अब तसव्वुर भी तुमहारे नहीं होते ।
गर पतंगे बे-खुदी मे नहीं जीते , शमा मे इतने शरारे नहीं होते ।
जीत कर भी हारना है मुहब्बत में , जंग में इतने खसारे नहीं होते ।
है हिदायत उस खुदा की ,करो उनकी तुम मदद जिनके सहारे नहीं होते ।
ये दग़ाबाज़ी घरों से हुई अपनी , वरना हम भी जंग हारे नहीं होते ।
ज़ख्म भी गहरा दर्द भी तेज़ है वरना, दुश्मनों को हुम पुकारे नहीं होते ।
रो रही है धरती धूल धुआं कचरा से , आजकल मौसम इतने करारे नहीं होते।
ज़ीस्त की कश्ती चली जनिबे सागर , इस सफ़र में फ़िर किनारे नहीं होते ।
हुस्न से गर रब्त रखते नहीं दानी , तो जीवन भर हुम अभागे नहीं होते।
तसव्वुर- यादें शरारे=आग खसारे -नुकसान ज़ीस्त--जीवन जानिबे सागर-सागर की ओर।
रब्त =संबंध
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