इस दिल के दर के पास उन्हीं के निशान है,
पर वस्ल की ज़मीन से वो बद-गुमान है।
मेरी वफ़ा के आसमां को उनसे इश्क़ है,
लेकिन हवस के फ़र्श पर उनकी अजान है।
मैं कसमों का ज़ख़ीरा रखा हूं सहेज कर,
पर उनकी वादा बेचने की सौ दुकान है।
सारा जहां झुका चुका हूं हौसलों के दम,
ज़ेहन में उनके बुजदिली का आसमान है।
जर्जर ये कश्ती सात समन्दर की राह पर,
अब लहरों का सलीब मेरा पासबान है।
कल्पना राम- राज्य की साकार होगी अब,
कुछ रावणों के हाथों वतन की कमान है।
जबसे सियासी ज़ुल्म बढा मुल्के-गांधी में,
हथियारों की दलाली , मेरा वर्तमान है।
मक़्तूल के लहद को उजाड़ा गया है, न्याय
फिर क़ातिलों के हाथों बिका बाग़बान है।
लूटो-ख़सोटो और निकल जाओ चुपके से,
दानी जदीद शिक्छा प्रणाली का ग्यान है।
वस्ल-- मिलन। पासबान- रक्छक। लहद-कब्र। जदीद- नई
शनिवार, 31 जुलाई 2010
शनिवार, 24 जुलाई 2010
राम की नगरी
ज़िन्दगी मजबूरियों की दास्तां है,
साथ ख़ुशियों के ग़मों का कारवां है।
है उजाला अब चराग़े-ग़म से घर में,
आंधियों के बेरहम लब बेज़ुबां है।
क्यूं अदालत, क़ातिलों को चाहती है,
न्याय के चुल्हों में पैसों का धुआं है।
झोपड़ी मजबूत है मेरी वफ़ा की,
बेवफ़ाई के महल में छत कहां है।
दर मकाने-इश्क़ का टूटा हुआ है,
नींव के भीतर अहम की आंधियां है।
तुम हवस के आसमां में फ़ंस चुकी हो,
मेरे छत पे सब्र की सौ सीढियां है।
फ़िक्र दुनिया की करें क्यूं,ज़िन्दगी की,
ग़म-ख़ुशी जब तेरे मेरे दरमियां है।
है समन्दर की अदाओं से सुकूं अब,
साहिलों के हुस्न में वो रस कहां है।
राम की नगरी में रहने वालों के घर,
आज क्यूं रावण के पैरों के निशां हैं।
साथ ख़ुशियों के ग़मों का कारवां है।
है उजाला अब चराग़े-ग़म से घर में,
आंधियों के बेरहम लब बेज़ुबां है।
क्यूं अदालत, क़ातिलों को चाहती है,
न्याय के चुल्हों में पैसों का धुआं है।
झोपड़ी मजबूत है मेरी वफ़ा की,
बेवफ़ाई के महल में छत कहां है।
दर मकाने-इश्क़ का टूटा हुआ है,
नींव के भीतर अहम की आंधियां है।
तुम हवस के आसमां में फ़ंस चुकी हो,
मेरे छत पे सब्र की सौ सीढियां है।
फ़िक्र दुनिया की करें क्यूं,ज़िन्दगी की,
ग़म-ख़ुशी जब तेरे मेरे दरमियां है।
है समन्दर की अदाओं से सुकूं अब,
साहिलों के हुस्न में वो रस कहां है।
राम की नगरी में रहने वालों के घर,
आज क्यूं रावण के पैरों के निशां हैं।
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
वादों का चमन
झुलस चुका है तेरे वादों का चमन हमदम,भरम के पानी से कब तक करूं जतन हमदम।
समन्दरे-वफ़ा ही मेरे इश्क़ की महफ़िल , तेरा दग़ा के किनारों सा अन्जुमन हमदम।
कुम्हारों की दुआ है मेरे प्यार की धरा को,अजीज़ है तुझे क्यूं ग़ैर का वतन हमदम।
शराबे-चश्म पिलाती हो इतनी तुम अदा से,लरजता फिर रहा है मेरा बांकपन हमदम।
ग़मे-चराग़ां से रौशन है मेरी ग़ुरबत ,ख़ुशी-ए-आंधियों कर ले तू गबन हमदम।
सज़ा झुके हुवे पौरष को ना दे वरना लोग,कहेंगे टूटा सिकन्दर का क्यूं वचन हमदम।
क़मर ने चांदनी को नाज़ से रखा पर वो,पहन ली बादलों के इश्क़ का कफ़न हमदम।
ग़रीबों से ख़फ़ा है वो अमीरों पर कुरबान,ज़माने से है ज़माने का ये चलन हमदम ।
बचाना है मुझे अपने अहम को भी दानी,वफ़ा के बदले दग़ा क्यूं करूं सहन हमदम।
अंजुमन- महफ़िल,ग़मे-चराग़ां- चराग़ो के ग़म से। ग़ुर्बत-ग़रीबी।क़मर-चांद।
समन्दरे-वफ़ा ही मेरे इश्क़ की महफ़िल , तेरा दग़ा के किनारों सा अन्जुमन हमदम।
कुम्हारों की दुआ है मेरे प्यार की धरा को,अजीज़ है तुझे क्यूं ग़ैर का वतन हमदम।
शराबे-चश्म पिलाती हो इतनी तुम अदा से,लरजता फिर रहा है मेरा बांकपन हमदम।
ग़मे-चराग़ां से रौशन है मेरी ग़ुरबत ,ख़ुशी-ए-आंधियों कर ले तू गबन हमदम।
सज़ा झुके हुवे पौरष को ना दे वरना लोग,कहेंगे टूटा सिकन्दर का क्यूं वचन हमदम।
क़मर ने चांदनी को नाज़ से रखा पर वो,पहन ली बादलों के इश्क़ का कफ़न हमदम।
ग़रीबों से ख़फ़ा है वो अमीरों पर कुरबान,ज़माने से है ज़माने का ये चलन हमदम ।
बचाना है मुझे अपने अहम को भी दानी,वफ़ा के बदले दग़ा क्यूं करूं सहन हमदम।
अंजुमन- महफ़िल,ग़मे-चराग़ां- चराग़ो के ग़म से। ग़ुर्बत-ग़रीबी।क़मर-चांद।
मंगलवार, 13 जुलाई 2010
ऐलाने-जंग
जंग मे हार हर बार हो ये ज़रूरी नहीं , वक़्त हर वक़्त दुशवार हो ये ज़रूरी नहीं।
गो सिकन्दर के परिवार से है न रिश्ता पर, दिल मे पोरष का किरदार हो ये ज़रूरी नहीं।
फ़िर जलाओ च्ररागे-मुहब्बत को तरतीब से,फ़िर हवायें गुनहगार हों ये ज़रूरी नहीं ।
कश्ती जर्जर है पर पार जाना भी ज़रूरी है , गम समन्दर का बेदार हो ये ज़रूरी नहीं।
इश्क़ क़ुरबानी की खेती है सीखो परवानों से,बस उपज से सरोकार हो ये ज़रूरी नहीं।
झुकना सीखो बुजुर्गों के आगे दरख़्तों सा,हर दम ख़ुदा को नमस्कार हो ये ज़रूरी नहीं।
शमा के दिल में भी आंसुओं की नदी बहती है,ये पतंगों से इज़हार हो ये ज़रूरी नहीं।
मिल गई दीद उनकी मनेगी मेरी ईद,अब ,चांद का छ्त पे दीदार हो ये ज़रूरी नहीं।
मज़हबी नस्लें भी विशवास की भूखी हैं दानी , जंग ही उनको स्वीकार हो ये ज़रूरी नहीं।
तरतीब- ठीक से। बेदार- जाग्रित। दीद-दर्शन।
गो सिकन्दर के परिवार से है न रिश्ता पर, दिल मे पोरष का किरदार हो ये ज़रूरी नहीं।
फ़िर जलाओ च्ररागे-मुहब्बत को तरतीब से,फ़िर हवायें गुनहगार हों ये ज़रूरी नहीं ।
कश्ती जर्जर है पर पार जाना भी ज़रूरी है , गम समन्दर का बेदार हो ये ज़रूरी नहीं।
इश्क़ क़ुरबानी की खेती है सीखो परवानों से,बस उपज से सरोकार हो ये ज़रूरी नहीं।
झुकना सीखो बुजुर्गों के आगे दरख़्तों सा,हर दम ख़ुदा को नमस्कार हो ये ज़रूरी नहीं।
शमा के दिल में भी आंसुओं की नदी बहती है,ये पतंगों से इज़हार हो ये ज़रूरी नहीं।
मिल गई दीद उनकी मनेगी मेरी ईद,अब ,चांद का छ्त पे दीदार हो ये ज़रूरी नहीं।
मज़हबी नस्लें भी विशवास की भूखी हैं दानी , जंग ही उनको स्वीकार हो ये ज़रूरी नहीं।
तरतीब- ठीक से। बेदार- जाग्रित। दीद-दर्शन।
सोमवार, 12 जुलाई 2010
उलझन
उलझनों में मुब्तिला है ज़िन्दगी ,मुश्किलों का सिलसिला है ज़िन्दगी।
बीच सागर में ख़ुशी पाता हूं मैं , साहिले ग़म से जुदा है ज़िन्दगी ।
फ़ांसी फिर मक़्तूल को दे दी गई ,क़ातिलों का फ़लसफ़ा है ज़िन्दगी।
किसी को तरसाती है ता-ज़िन्दगी,किसी के खातिर ख़ुदा है ज़िन्दगी।
मैं ग़ुलामी हुस्न की क्यूं ना करूं, चाकरी की इक अदा है ज़िन्दगी ।
इक किनारे पे ख़ुशी दूजे पे ग़म ,दो क़दम का फ़ासला है ज़िन्दगी।
मैं हताशा के भंवर में फंस चुका, मेरी सांसों से ख़फ़ा है ज़िन्दगी।
बे-समय भी फ़ूट जाती है कभी ,पानी का इक बुलबुला है ज़िन्दगी।
वादा करके तुम गई हो जब से दूर, तेरी यादों की क़बा है ज़िन्दगी ।
मैं चराग़ो के सफ़र के साथ हूं , बे-रहम दानी हवा है ज़िन्दगी।
बीच सागर में ख़ुशी पाता हूं मैं , साहिले ग़म से जुदा है ज़िन्दगी ।
फ़ांसी फिर मक़्तूल को दे दी गई ,क़ातिलों का फ़लसफ़ा है ज़िन्दगी।
किसी को तरसाती है ता-ज़िन्दगी,किसी के खातिर ख़ुदा है ज़िन्दगी।
मैं ग़ुलामी हुस्न की क्यूं ना करूं, चाकरी की इक अदा है ज़िन्दगी ।
इक किनारे पे ख़ुशी दूजे पे ग़म ,दो क़दम का फ़ासला है ज़िन्दगी।
मैं हताशा के भंवर में फंस चुका, मेरी सांसों से ख़फ़ा है ज़िन्दगी।
बे-समय भी फ़ूट जाती है कभी ,पानी का इक बुलबुला है ज़िन्दगी।
वादा करके तुम गई हो जब से दूर, तेरी यादों की क़बा है ज़िन्दगी ।
मैं चराग़ो के सफ़र के साथ हूं , बे-रहम दानी हवा है ज़िन्दगी।
रविवार, 11 जुलाई 2010
ग़म का दरबार
ग़म का दरबार लगाया न करो,दर्द को यार बढाया न करो।
हुस्न की दासता स्वीकार नहीं,मेरा किरदार गिराया न करो।
ये मुहर्रम का महीना है सनम,अपना दीदार कराया न करो।
शमा तू, मेरा पतंगा सा दिल ,अपने सर नार लगाया न करो।
नींव मजबूत न दिल के मकां की,मकतबे-प्यार पढाया न करो।
सच के दम ज़िंदगी चल ना सके पर,झूठा संसार बसाया न करो।
साहिले-वस्ल में रहता हूं मैं,मुझे हिज्रे-मंझधार सुनाया न करो।
मैंनें सरहद पे बहाया है लहू ,कह के गद्दार बुलाया न करो।
कौन आयेगा दरे-ग़म में इस ,बे-वजह द्वार भिड़ाया न करो।
मुझको तुम चाहो न चाहो लेकिन,औरों से प्यार जताया न करो।
नार-आग। मकतबे- प्यार-प्यार का पाठ। साहिले वस्ल-मिलन का किनारा।
हिज्रे-मंझधार-मंझधार का विछोह।
हुस्न की दासता स्वीकार नहीं,मेरा किरदार गिराया न करो।
ये मुहर्रम का महीना है सनम,अपना दीदार कराया न करो।
शमा तू, मेरा पतंगा सा दिल ,अपने सर नार लगाया न करो।
नींव मजबूत न दिल के मकां की,मकतबे-प्यार पढाया न करो।
सच के दम ज़िंदगी चल ना सके पर,झूठा संसार बसाया न करो।
साहिले-वस्ल में रहता हूं मैं,मुझे हिज्रे-मंझधार सुनाया न करो।
मैंनें सरहद पे बहाया है लहू ,कह के गद्दार बुलाया न करो।
कौन आयेगा दरे-ग़म में इस ,बे-वजह द्वार भिड़ाया न करो।
मुझको तुम चाहो न चाहो लेकिन,औरों से प्यार जताया न करो।
नार-आग। मकतबे- प्यार-प्यार का पाठ। साहिले वस्ल-मिलन का किनारा।
हिज्रे-मंझधार-मंझधार का विछोह।
शनिवार, 10 जुलाई 2010
इश्क़ की खेती
इश्क़ की खेती में अब नुकसान है,बरसों से खाली मेरा खलिहान है।
अब मदद की बरिशें होती नहीं , बादलों का दरिया भी शैतान है।
भोथरे औज़ार हर दिल में जवां , वफ़ा के हल से जहां अंजान है।
शबनमे -दिल की डकैती हो रही , मेढों का नथ तोड़ता इंसान है।
पैसों के चौपाल में बिकता है न्याय,गांव का सरपंच बेईमान है।
प्यार की गलियां हैं दलदल से भरी,कीचड़ों में हुस्न का सामान है।
मैं किनारों के ख़ुदा से क्यूं डरूं ,जब समन्दर मेरा भगवान है।
मैं जलाता हूं चराग़े-सब्र को ,पर हवस का हर तरफ़ तूफ़ान है।
दानी लाचारी ,ग़रीबी ,भूख़ ही ,क्यूं ख़ुदा का दुनिया को वरदान है।
अब मदद की बरिशें होती नहीं , बादलों का दरिया भी शैतान है।
भोथरे औज़ार हर दिल में जवां , वफ़ा के हल से जहां अंजान है।
शबनमे -दिल की डकैती हो रही , मेढों का नथ तोड़ता इंसान है।
पैसों के चौपाल में बिकता है न्याय,गांव का सरपंच बेईमान है।
प्यार की गलियां हैं दलदल से भरी,कीचड़ों में हुस्न का सामान है।
मैं किनारों के ख़ुदा से क्यूं डरूं ,जब समन्दर मेरा भगवान है।
मैं जलाता हूं चराग़े-सब्र को ,पर हवस का हर तरफ़ तूफ़ान है।
दानी लाचारी ,ग़रीबी ,भूख़ ही ,क्यूं ख़ुदा का दुनिया को वरदान है।
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
ईमान
जब से दिलों की गलियों में ईमान बिकते हैं,हां तब से राहे-इश्क़ बियाबान लगते हैं।
ग़म से भरी है दास्तां मेरी जवानी की ,बज़ारे-इश्क़ मे सदा अरमान सड़ते हैं।
साहिल के घर का ज़ुल्म बहुत झेला है मैंने,मंझधार में ही सब्र को परवान चढते हैं।
दिल में नशा शराब का चढता नहीं कभी ,बस साक़ी के लिये ही गिरेबान फटते हैं।
हर काम पहले थोड़ा कठिन लगता है मगर,कोशिश करोगे दिल से तो आसान होते हैं।
ग़म के चराग़ों से मेरा रिश्ता पुराना है ,सुख के हवाओं में कहां इंसान बनते हैं ।
लबरेज़ है हवस से ,मुहब्बत का दरिया अब,बस चंद वक़्त के लिये तूफ़ान उठते हैं।
सैयाद जब से बुलबुलों को बेच आया शहर ,तब से दरख़्ते-शहर परेशान दिखते हैं।
इस मुल्क की विशेष पहचान है दुनिया में, तामीर मंदिरों की मुसलमान करते हैं।
ग़म से भरी है दास्तां मेरी जवानी की ,बज़ारे-इश्क़ मे सदा अरमान सड़ते हैं।
साहिल के घर का ज़ुल्म बहुत झेला है मैंने,मंझधार में ही सब्र को परवान चढते हैं।
दिल में नशा शराब का चढता नहीं कभी ,बस साक़ी के लिये ही गिरेबान फटते हैं।
हर काम पहले थोड़ा कठिन लगता है मगर,कोशिश करोगे दिल से तो आसान होते हैं।
ग़म के चराग़ों से मेरा रिश्ता पुराना है ,सुख के हवाओं में कहां इंसान बनते हैं ।
लबरेज़ है हवस से ,मुहब्बत का दरिया अब,बस चंद वक़्त के लिये तूफ़ान उठते हैं।
सैयाद जब से बुलबुलों को बेच आया शहर ,तब से दरख़्ते-शहर परेशान दिखते हैं।
इस मुल्क की विशेष पहचान है दुनिया में, तामीर मंदिरों की मुसलमान करते हैं।
गुरुवार, 8 जुलाई 2010
सरहदें
क़ाग़ज पे मेरा नाम लिख मिटाते क्यूं हो ,है गर मुहब्बत मुझसे तो छिपाते क्यूं हो।
घर के दहाने इन तवील रातों मे तुम , इक रौश्नी मुझको दिखा बुझाते क्यूं हो।
जब ज़ख़्मों की तसवीर है नदारद दिल में , तो दर्द की महफ़िल अबस सजाते क्यूं हो।
आवारगी तेरा पयाम है दुनिया को , तो दिल ज़माने से कभी लगाते क्यूं हो।
जब ज़िन्दगी क़ुरबान है किसी के खातिर , तो नाम उसका दुनिया को बताते क्यूं हो।
तेरे ग़मों का हिसाब तू ही जाने , लेकर ग़मों का बोझ मुस्कुराते क्यूं हो।
तुम आंसुओं का मोल जानते हो हमदम , तो आंसुओं को बेवजह गिराते क्यूं हो।
ये सरहदें बेबात बांट ली हमने जब ,तुम सरहदों में बार बार आते क्यूं हो।
ख़ुद हौसलों से दूर हो जीवन भर दानी ,तो हौसला मेरा सदा बढाते क्यूं हो।
घर के दहाने इन तवील रातों मे तुम , इक रौश्नी मुझको दिखा बुझाते क्यूं हो।
जब ज़ख़्मों की तसवीर है नदारद दिल में , तो दर्द की महफ़िल अबस सजाते क्यूं हो।
आवारगी तेरा पयाम है दुनिया को , तो दिल ज़माने से कभी लगाते क्यूं हो।
जब ज़िन्दगी क़ुरबान है किसी के खातिर , तो नाम उसका दुनिया को बताते क्यूं हो।
तेरे ग़मों का हिसाब तू ही जाने , लेकर ग़मों का बोझ मुस्कुराते क्यूं हो।
तुम आंसुओं का मोल जानते हो हमदम , तो आंसुओं को बेवजह गिराते क्यूं हो।
ये सरहदें बेबात बांट ली हमने जब ,तुम सरहदों में बार बार आते क्यूं हो।
ख़ुद हौसलों से दूर हो जीवन भर दानी ,तो हौसला मेरा सदा बढाते क्यूं हो।
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
मेरी कहानी
ग़म की कहानी से मुझे भी प्यार है ,दिल आंसुओं के मन्च का फ़नकार है।
ऐ दिल भरोसा उस सितमगर पे न कर, उसको शहादत ही सदा स्वीकार है।
इक झोपडी जब से बनायी है मैंने ,बिलडर की नज़रों मे मेरा सन्सार है ।
हम राम की गाथा सुनाते हैं सदा , तेरी ज़ुबां में रावणी अशाआर हैं।
दिल के चरागों को, न है डर उसका गो,वो आंधियों के गांव की सरदार है ।
हां चांदनी फ़िर बादलों के घर चली,पर चांद की गलियां कहां खुद्दार है।
मेरी ग़रीबी की ज़रुरत स्वाभिमान,तेरी अमीरी बे-अहम बाज़ार है।
मासूम हैं इस गांव के लडके सभी,तेरे नगर की लडकी भी अखबार है।
इज़्ज़त लकीरों की सदा हम करते हैं,तेरा तो सारा कुनबा ही गद्दार है।
ऐ दिल भरोसा उस सितमगर पे न कर, उसको शहादत ही सदा स्वीकार है।
इक झोपडी जब से बनायी है मैंने ,बिलडर की नज़रों मे मेरा सन्सार है ।
हम राम की गाथा सुनाते हैं सदा , तेरी ज़ुबां में रावणी अशाआर हैं।
दिल के चरागों को, न है डर उसका गो,वो आंधियों के गांव की सरदार है ।
हां चांदनी फ़िर बादलों के घर चली,पर चांद की गलियां कहां खुद्दार है।
मेरी ग़रीबी की ज़रुरत स्वाभिमान,तेरी अमीरी बे-अहम बाज़ार है।
मासूम हैं इस गांव के लडके सभी,तेरे नगर की लडकी भी अखबार है।
इज़्ज़त लकीरों की सदा हम करते हैं,तेरा तो सारा कुनबा ही गद्दार है।
सोमवार, 5 जुलाई 2010
ज़िन्दगी
इक मुख़्तसर कहानी है अपनी ये ज़िन्दगी , कुछ पन्नों में ग़मों की हवा कुछ में है ख़ुशी।
मेरे दरख़्तों सी वफ़ा पे दुनिया नाज़ करती , किरदार तेरे इश्क़ का बहती हुई नदी।
सबको यहां से जाना है इक शब गुज़ार पर , इक रात भी कभी लगे लाचार इक सदी।
दीवार ख़ोख़ला है तेरे महले-शौक का , मजबूत बेश, सब्र की मेरी ये झोपड़ी।
जीते जी माना तुमने तग़ाफ़ुल नवाज़ा पर , क्यूं रखती है लहद के लिये दिल में बेरुख़ी।
जुर्मों की भीड़ क्यूं है तेरे शहरे-इश्क़ में , लबरेज़ है सुकूं से, दिले-गांव की गली।
मैं रात दिन जलाता हूं दिल के चराग़ों को , पर तूने की हवाओं के ईश्वर से दोस्ती।
मजबूरी तुमने देखी न दरवेशे-इश्क़ की , ख़ुद्दार राही के लिये हर गाम दलदली।
पतवार तेरा,साहिलों के ज़ुल्मों का हबीब , जर्जर मेरी ये कश्ती समन्दर से भिड़ चुकी।
मुख़्तसर- लघु। शब- रा॥ महले- शौक- शौक के महल का। तग़ाफ़ुल-उपेक्छा। लहद- क़ब्र।
शहरे-इश्क़- इश्क़ का शहर। गाम - कदम। हबीब- चाहने वाला
मेरे दरख़्तों सी वफ़ा पे दुनिया नाज़ करती , किरदार तेरे इश्क़ का बहती हुई नदी।
सबको यहां से जाना है इक शब गुज़ार पर , इक रात भी कभी लगे लाचार इक सदी।
दीवार ख़ोख़ला है तेरे महले-शौक का , मजबूत बेश, सब्र की मेरी ये झोपड़ी।
जीते जी माना तुमने तग़ाफ़ुल नवाज़ा पर , क्यूं रखती है लहद के लिये दिल में बेरुख़ी।
जुर्मों की भीड़ क्यूं है तेरे शहरे-इश्क़ में , लबरेज़ है सुकूं से, दिले-गांव की गली।
मैं रात दिन जलाता हूं दिल के चराग़ों को , पर तूने की हवाओं के ईश्वर से दोस्ती।
मजबूरी तुमने देखी न दरवेशे-इश्क़ की , ख़ुद्दार राही के लिये हर गाम दलदली।
पतवार तेरा,साहिलों के ज़ुल्मों का हबीब , जर्जर मेरी ये कश्ती समन्दर से भिड़ चुकी।
मुख़्तसर- लघु। शब- रा॥ महले- शौक- शौक के महल का। तग़ाफ़ुल-उपेक्छा। लहद- क़ब्र।
शहरे-इश्क़- इश्क़ का शहर। गाम - कदम। हबीब- चाहने वाला
रविवार, 4 जुलाई 2010
जब से तुमको देखा है
जबसे तुमको देखा है ,मरने की बस इच्छा है।
इक नदी बौराई तू , शांत मेरा दरिया है।
तेरी यादें ही सनम ,अब तो मेरी दुनिया है।
साहिलों से डरता हुं , लहरों से अब रिश्ता है।
हमको जब माना ख़ुदा ,हमसे ही क्यूं पर्दा है।
धक्का दे कर अपनों को,आगे हमको बढना है।
दूर जबसे तू गई , बज़्म मेरा तन्हा है।
चोरी मेरी भी अदा , बस तलाशे मौक़ा है ।
मैं पतंगा तो नही ,फिर भी मुझको जलना है।
दोनों की ख़्वाहिश यही,दानी से बस मिलना है।
इक नदी बौराई तू , शांत मेरा दरिया है।
तेरी यादें ही सनम ,अब तो मेरी दुनिया है।
साहिलों से डरता हुं , लहरों से अब रिश्ता है।
हमको जब माना ख़ुदा ,हमसे ही क्यूं पर्दा है।
धक्का दे कर अपनों को,आगे हमको बढना है।
दूर जबसे तू गई , बज़्म मेरा तन्हा है।
चोरी मेरी भी अदा , बस तलाशे मौक़ा है ।
मैं पतंगा तो नही ,फिर भी मुझको जलना है।
दोनों की ख़्वाहिश यही,दानी से बस मिलना है।
ख़ुदकुशी
इश्क़ भी इक ख़ुदकुशी है , ज़िन्दगी से दुश्मनी है।
वो बडी मासूम है पर , मुझको पागल कर चुकी है।
छात्र हूं मैं वो गुरू है , उसके हाथों में छड़ी है।
नींद से महरूम हूं मैं , सारी दुनिया सो रही है ।
मै पतन्गा फ़िर जलूंगा , शमा की महफ़िल सजी है।
क़त्ल दिल का हो चुका है,पीठ पीछे वो खडी है ।
रुकना क़िस्मत मे नहीं है, ज़िन्दगी गोया नदी है।
मैं चराग़ों का सफ़र हूं ,तू हवाओं की गली है।
चांदनी जब से ख़फ़ा है , जुगनुओं से दोस्ती है।
उड़ चुके हैं होश कूछ यूं , चाल में आवारगी है।
ज़िन्दगी आखिर है क्या बस, बेबसी ही बेबसी है।
वो बडी मासूम है पर , मुझको पागल कर चुकी है।
छात्र हूं मैं वो गुरू है , उसके हाथों में छड़ी है।
नींद से महरूम हूं मैं , सारी दुनिया सो रही है ।
मै पतन्गा फ़िर जलूंगा , शमा की महफ़िल सजी है।
क़त्ल दिल का हो चुका है,पीठ पीछे वो खडी है ।
रुकना क़िस्मत मे नहीं है, ज़िन्दगी गोया नदी है।
मैं चराग़ों का सफ़र हूं ,तू हवाओं की गली है।
चांदनी जब से ख़फ़ा है , जुगनुओं से दोस्ती है।
उड़ चुके हैं होश कूछ यूं , चाल में आवारगी है।
ज़िन्दगी आखिर है क्या बस, बेबसी ही बेबसी है।
शुक्रवार, 2 जुलाई 2010
वफ़ा दो
मेरे क़ातिल का मुझे कोई पता दो , या उसे मेरी तरफ़ से दुआ दो।
मैं चराग़ों की हिफ़ाज़त कर रहा हूं ,बात ये सरकश हवाओं को बता दो।
बेवफ़ा कह के घटाओ मत मेरा कद, है वफ़ा की चाह तो ख़ुद भी वफ़ा दो।
छोड़ कर जाने के पहले ऐ सितमगर,इक अदा सच्ची मुहब्बत की दिखा दो।
जीते जी गर दूरी ज़ायज थी जहां में, कांधा तो मेरे जनाज़े को लगा दो।
ये किनारे बेरहम हैं बदगुमां हैं , कश्तियों, मंझधार को अपनी बना लो।
चांदनी से चांद की इज़्ज़त है जग मे , रौशनी दो या अंधेरों की सज़ा दो।
ज़िन्दगी कुर्बान है कदमों मे तेरे , ऐ ख़ुदा मरने का मुझको हौसला दो।
प्यार में दरवेशी का आलम है दानी, मिल सको ना तो तसव्वुर की रज़ा दो।
मैं चराग़ों की हिफ़ाज़त कर रहा हूं ,बात ये सरकश हवाओं को बता दो।
बेवफ़ा कह के घटाओ मत मेरा कद, है वफ़ा की चाह तो ख़ुद भी वफ़ा दो।
छोड़ कर जाने के पहले ऐ सितमगर,इक अदा सच्ची मुहब्बत की दिखा दो।
जीते जी गर दूरी ज़ायज थी जहां में, कांधा तो मेरे जनाज़े को लगा दो।
ये किनारे बेरहम हैं बदगुमां हैं , कश्तियों, मंझधार को अपनी बना लो।
चांदनी से चांद की इज़्ज़त है जग मे , रौशनी दो या अंधेरों की सज़ा दो।
ज़िन्दगी कुर्बान है कदमों मे तेरे , ऐ ख़ुदा मरने का मुझको हौसला दो।
प्यार में दरवेशी का आलम है दानी, मिल सको ना तो तसव्वुर की रज़ा दो।
गुरुवार, 1 जुलाई 2010
बे-वफ़ाई
अब बेवफ़ाई, इश्क़ का दस्तूर है , राहे-मुहब्बत दर्द से भरपूर है।
बारिश का मौसम रुख़ पे आया इस तरह,ज़ुल्फ़ों का तेरा दरिया भी मग़रूर है।
ग़म के चमन को रोज़ सजदे करता हूं ,पतझड़ के व्होठों में मेरा ही नूर है।
इस झोपड़ी की यादों में इक ख़ुशबू है ,महलों के रिश्ते भी सनम नासूर हैं।
दिल के समन्दर में वफ़ा की कश्ती है , आंख़ों के साग़र को हवस मन्जूर है।
जब से नदी के पास ये दिल बैठा है , मेरी रगों की प्यास मुझसे दूर है।
चालें सियासत की, तेरे वादों सी , जनता उलझने को सदा मजबूर है।
ग़म के चराग़ो को जला कर बैठा हूं , अब आंधियों का हुस्न बे-नूर है।
दिल राम को तरज़ीह देता है मगर , मन रावणी क्रित्यों में मख़मूर है।
बारिश का मौसम रुख़ पे आया इस तरह,ज़ुल्फ़ों का तेरा दरिया भी मग़रूर है।
ग़म के चमन को रोज़ सजदे करता हूं ,पतझड़ के व्होठों में मेरा ही नूर है।
इस झोपड़ी की यादों में इक ख़ुशबू है ,महलों के रिश्ते भी सनम नासूर हैं।
दिल के समन्दर में वफ़ा की कश्ती है , आंख़ों के साग़र को हवस मन्जूर है।
जब से नदी के पास ये दिल बैठा है , मेरी रगों की प्यास मुझसे दूर है।
चालें सियासत की, तेरे वादों सी , जनता उलझने को सदा मजबूर है।
ग़म के चराग़ो को जला कर बैठा हूं , अब आंधियों का हुस्न बे-नूर है।
दिल राम को तरज़ीह देता है मगर , मन रावणी क्रित्यों में मख़मूर है।
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