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Global Voices हिन्दी में
रफ़्तार
चिट्ठाजगत

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

देश से प्यार है

दे्श के कण कण से ओ जन जन से हमको प्यार है,
अब यही तो मुल्क के जनतंत्र का आधार है।

फ़र्ज का चौपाल अब भी लगता मेरे गांव में,
ज़ुल्म का हर सिम्त तेरे शहर में दरबार है।

अपनी ज़ुल्फ़ों की घटाओं को रखो तरतीब से,
सूर्य की बुनियाद वरना ढहने को तैयार है।

जब जवानी की अदालत है हवस के बाड़े में,
तो वक़ालत सब्र की मेरे लिये दुश्वार है।

बेवफ़ाई चांदनी का तौर है हर दौर में,
चांद की तस्वीर में अब भी वफ़ा का हार है।

जानिबे-तूफ़ां मेरी कश्ती चली है बेधड़क,
बेरहम साहिल से मेरी सदियों से टकरार है।

क्यूं मुहब्बत में सियासत करती हो जाने-जिगर
ये रियासत तो ख़ुदाई इल्म का संसार है।

जब से तुमको देखा है मेरे होश की छत ढह गई,
बेबसी के दायरे में नींव की दस्तार है। (दस्तार -टोपी)

दानी मैखाने में मय पीने नहीं आता था सुबू,( सुबू-- शराब खाने का मुखिया)
दीदे-साक़ी बिन नशे की हर ज़मीं मुरदार है।

शनिवार, 15 जनवरी 2011

ऐतबार

तुझपे मैं ऐतबार कर रहा हूं,
मुश्किलों से करार कर रहा हूं।

प्यार कर या सितम ढा ग़लती ये
बा-अदब बार बार कर रहा हूं।

जानता हूं तू आयेगी नहीं पर,
सदियों से इन्तज़ार कर रहा हूं।

जब से कुर्बानी का दिखा है चांद,
अपनी सांसों पे वार कर रहा हूं।

हुस्न की ख़ुशियों के लिये, मैं इश्क़
गमों का इख़्तियार कर रहा हूं।

तू ख़िज़ां की मुरीद इसलिये अब,
मैं भी क़त्ले-बहार कर रहा हूं।

दिल से लहरों का डर मिटाने ही,
आज मैं दरिया पार कर रहा हूं।

मेरा जलता रहे चराग़े ग़म,
आंधियों से गुहार कर रहा हूं।

गांव के प्यार में न लगता था ज़र,
शहरे-ग़म में उधार कर रहा हूं।

आशिक़ी के बियाबां में दानी,
ख़ुद ही अपना शिकार कर रहा हूं।

शनिवार, 8 जनवरी 2011

हवा-ए-हुस्न सरकार की

तमहीद क्या लिखूं मेरे यार की,
वो इक दवा है दर्दे-बीमार की।

तेरी अदायें माशा अल्ला सनम,
तेरी बलायें मैंने स्वीकार की।

दरवेशी मैंने तुमसे ही पाई है,
मेरी जवानी तुमने दुशवार की।

दिल ये चराग़ों सा जले,मैंने जब
देखी, हवा-ए-हुस्न सरकार की।


लहरों से मेरा रिश्ता मजबूत है,
साहिल ने बदगुमानी हर बार की।

ना पाया हुस्न की नदी में सुकूं,
कश्ती की सांसें खुद ही मंझधार की।

मासूम मेरे कल्ब को देख कर,
फिर उसने तेज़, धारे-तलवार की।

ग़ुरबत में रहते थे सुकूं से, खड़ी
ज़र के लिये तुम्ही ने दीवार की।

परदेश में ज़माने से बैठा हूं,
है फ़िक्र दानी अपने दस्तार की।

शनिवार, 1 जनवरी 2011

ज़ुल्फ़ों का ख़म

मेरे दिल की खिड़कियां टूटी है हमदम,
फिर भी तेरे हुस्न का तूफ़ां है बरहम। ( बरहम-- अप्रसन्न)

आंसुओं से मैं वफ़ा के गीत लिखता,
बे-वफ़ाई तेरी आंखों की तबस्सुम।

मैं शराबी तो नहीं लेकिन करूं क्या,
दिल बहकता,देख तेरी ज़ुल्फ़ों का खम।

तुम हवस के छाते में गो गुल खिलाती,
सब्र से भीगा है मेरे दिल का मौसम।

साथ तेरे स्वर्ग की ख़्वाहिश थी मेरी,
अब ख़ुदा से मांगता हूं जहन्नुम।

हिज्र की लहरों से मेरी दोस्ती है,
वस्ल के साहिल का तू ना बरपा मातम।

मैं चराग़ों के मुहल्ले का सिपाही,
आंधियों से मुझको लड़ना है मुजस्सम। ( मुजस्सम--जिस्म सहित , आमने -सामने)

मेरे दिल में हौसलों की सीढियां हैं,
पर सफ़लता, भ्रष्ट लोगों के है शरणम।

मेरी ख़ुशियों का गला यूं घोटा दानी,
ईद के दिन भी मनाता हूं मुहर्रम।