मेरी तेरी जब से कुछ पहचान है,
मुश्किलों में तब से मेरी जान है।
प्यार का इज़हार करना चाहूं पर,
डर का चाबुक सांसों का दरबान है।
इश्क़ में दरवेशी का कासा धरे,
बेसबब चलने का वरदान है।
जब से तेरै ज़ुल्फ़ों की खम देखी है,
तब से सांसत मे मेरा ईमान है।
मत झुकाओ नीमकश आखों को और,
और कुछ दिन जीने का अरमान है।
ज़िन्दगी भर ईद की ईदी तुझे,
मेरे हक़ में उम्र भर रमजान है।
सब्र की पगडदियां मेरे लिये,
तू हवस के खेल की मैदान है।
मेरे दिल के कमरे अक्सर रोते हैं,
तू वफ़ा की छत से क्यूं अन्जान है।
तेरे बिन जीना सज़ा से कम नहीं,
मरना भी दानी कहां आसान है।
शुक्रवार, 24 जून 2011
शुक्रवार, 17 जून 2011
गम का दरिया
गम का दरिया छलकने को तैयार है,
साहिले हुस्न का ज़ुल्म स्वीकार है।
तेरे वादों का कोई भरोसा नहीं,
झूठ की गलियों में तेरा घरबार है।
चल पड़ी है कश्ती तूफ़ानों के बांहों में,
ज़ुल्मी महबूब, सदियों से उस पार है।
शहरों का रंग चढने लगा गांव में,
हर गली में सियासत का व्यौपार है।
पैसों का हुक्म चलता है अब सांसों पर,
आदमी का कहां कोई किरदार है।
जब से ली है ज़मानत चरागों की,तब
से अदालत हवाओं की मुरदार है।
बस मिटा दो लकीरे वतन को सनम,
इश्क़ को सरहदों से कहां प्यार है।
मन के आंगन में गुल ना खिले वस्ल के,
हुस्न के जूड़े में हिज्र का ख़ार है।
ज़ुल्फ़ों को यूं न हमदम बिखेरा करो,
दानी के गांव का सूर्य बीमार है।
साहिले हुस्न का ज़ुल्म स्वीकार है।
तेरे वादों का कोई भरोसा नहीं,
झूठ की गलियों में तेरा घरबार है।
चल पड़ी है कश्ती तूफ़ानों के बांहों में,
ज़ुल्मी महबूब, सदियों से उस पार है।
शहरों का रंग चढने लगा गांव में,
हर गली में सियासत का व्यौपार है।
पैसों का हुक्म चलता है अब सांसों पर,
आदमी का कहां कोई किरदार है।
जब से ली है ज़मानत चरागों की,तब
से अदालत हवाओं की मुरदार है।
बस मिटा दो लकीरे वतन को सनम,
इश्क़ को सरहदों से कहां प्यार है।
मन के आंगन में गुल ना खिले वस्ल के,
हुस्न के जूड़े में हिज्र का ख़ार है।
ज़ुल्फ़ों को यूं न हमदम बिखेरा करो,
दानी के गांव का सूर्य बीमार है।
शनिवार, 11 जून 2011
दोस्ती मुश्किलों से
हो गई है दोस्ती मुश्किलों से,
बढ रही हैं दूरियां मन्ज़िलों से।
तेरे दर पे मरने आया हूं हमदम,
वार तो कर आंखों की खिड़कियों से।
बीबी के आगे नहीं चलती कुछ, गो
सरहदों पे लड़ चुका सैकड़ों से।
सोते सोते जाग जाता हूं अक्सर,
लगता है डर ख़्वाबों की वादियों से।
इश्क़ की रातें चरागों सी गुमसुम,
हुस्न का टाकां भिड़ा आंधियों से।
दिल के गुल को मंदिरों से है नफ़रत,
वो लिपटना चाहे तेरी लटों से।
दिल के छत पर तेरे वादों का तूफ़ां,
जो भड़कता हिज्र के बादलों से।
गर सियासत के बियाबां में जाओ,
बच के रहना जंगली भेड़ियों से।
जीतना है गर समन्दर को दानी,
फ़ेंक दो पतवारों को कश्तियों से।
बढ रही हैं दूरियां मन्ज़िलों से।
तेरे दर पे मरने आया हूं हमदम,
वार तो कर आंखों की खिड़कियों से।
बीबी के आगे नहीं चलती कुछ, गो
सरहदों पे लड़ चुका सैकड़ों से।
सोते सोते जाग जाता हूं अक्सर,
लगता है डर ख़्वाबों की वादियों से।
इश्क़ की रातें चरागों सी गुमसुम,
हुस्न का टाकां भिड़ा आंधियों से।
दिल के गुल को मंदिरों से है नफ़रत,
वो लिपटना चाहे तेरी लटों से।
दिल के छत पर तेरे वादों का तूफ़ां,
जो भड़कता हिज्र के बादलों से।
गर सियासत के बियाबां में जाओ,
बच के रहना जंगली भेड़ियों से।
जीतना है गर समन्दर को दानी,
फ़ेंक दो पतवारों को कश्तियों से।
शुक्रवार, 3 जून 2011
तेरी जुदाई का मातम
तेरी जुदाई का ऐसा मातम रहा,
ता-ज़िन्दगी दूर मुझसे हर गम रहा।
मंज़िल मेरी तेरी ज़ुल्फ़ों के गांव में,
दिल के सफ़र में बहुत पेचो-ख़म रहा।( पेचो_ख़म- उलझन)
इक धूप का टुकड़ा था मेरी जेब में,
पर वो भी नाराज़ मुझसे हरदम रहा।
सांसे गुज़र तो रही हैं बिन तेरे भी,
पर जीने का हौसला हमदम कम रहा।
ईमां की खेती करें तो कैसे करें,
बाज़ारे दुनिया में सच भी बरहम रहा। (बरहम- अप्रसन्न)
दिल की गली को दुआ तेरे अब्र की,
ता उम्र ज़ुल्मो-सितम का मौसम रहा।
नेक़ी की पगड़ी गो ढीली ढीली रही,
मीनार छूता बदी का परचम रहा।( परचम- झंडा)
भौतिकता के अर्श में हम ऐसे फंसे, ( अर्श- आकाश)
सदियां गई आदमी पर ,आदम रहा।
बुलबुल-ए-दिल, हुस्न के बगिया से कहे
सैयाद से रिश्ता दानी कायम रहा
ता-ज़िन्दगी दूर मुझसे हर गम रहा।
मंज़िल मेरी तेरी ज़ुल्फ़ों के गांव में,
दिल के सफ़र में बहुत पेचो-ख़म रहा।( पेचो_ख़म- उलझन)
इक धूप का टुकड़ा था मेरी जेब में,
पर वो भी नाराज़ मुझसे हरदम रहा।
सांसे गुज़र तो रही हैं बिन तेरे भी,
पर जीने का हौसला हमदम कम रहा।
ईमां की खेती करें तो कैसे करें,
बाज़ारे दुनिया में सच भी बरहम रहा। (बरहम- अप्रसन्न)
दिल की गली को दुआ तेरे अब्र की,
ता उम्र ज़ुल्मो-सितम का मौसम रहा।
नेक़ी की पगड़ी गो ढीली ढीली रही,
मीनार छूता बदी का परचम रहा।( परचम- झंडा)
भौतिकता के अर्श में हम ऐसे फंसे, ( अर्श- आकाश)
सदियां गई आदमी पर ,आदम रहा।
बुलबुल-ए-दिल, हुस्न के बगिया से कहे
सैयाद से रिश्ता दानी कायम रहा
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