गम का दरिया छलकने को तैयार है,
साहिले हुस्न का ज़ुल्म स्वीकार है।
तेरे वादों का कोई भरोसा नहीं,
झूठ की गलियों में तेरा घरबार है।
चल पड़ी है कश्ती तूफ़ानों के बांहों में,
ज़ुल्मी महबूब, सदियों से उस पार है।
शहरों का रंग चढने लगा गांव में,
हर गली में सियासत का व्यौपार है।
पैसों का हुक्म चलता है अब सांसों पर,
आदमी का कहां कोई किरदार है।
जब से ली है ज़मानत चरागों की,तब
से अदालत हवाओं की मुरदार है।
बस मिटा दो लकीरे वतन को सनम,
इश्क़ को सरहदों से कहां प्यार है।
मन के आंगन में गुल ना खिले वस्ल के,
हुस्न के जूड़े में हिज्र का ख़ार है।
ज़ुल्फ़ों को यूं न हमदम बिखेरा करो,
दानी के गांव का सूर्य बीमार है।
शुक्रवार, 17 जून 2011
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कोमल भावनाओं में रची-बसी सुन्दर रचना|
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