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रफ़्तार
चिट्ठाजगत

बुधवार, 16 जून 2010

दिल की दासतां

ये सुलगते हुवे दिल की दास्तां है, , मेरे रग रग में यारों धुआं धुआं है ।
दर्द ग़म तीरगी से सजी है महफ़िल , आज तनहाई ही मेरा पासबां है।
चांदनी का मुझे इंतज़ार तो है , पर घटाओं से लबरेज़ आसमां है ।
कांच का घर बनाकर परीशां हूं मैं , शहर वालों के हाथों में गिट्टियां हैं।
ये मकाने-मुहब्बत है तिनकों का पर, अब ज़माने की नज़रों में आंधियां हैं।
ज़ख्मों की पालकी झुनझुना बजाती , मेरी ग़ज़लों की तहरीर बे-ज़ुबां है ।
ऐ ब्रितानी समन्दर बदल ले रस्ता , खूने-झांसी से तामीर कश्तियां हैं ।
मुल्क खातिर जवानी में बेवफ़ा था, दौरे-पीरी ,शहादत में मेरी हां है ।
सजदे में बैठा हूं रिन्दगाह में मैं , दानी अब तो बताओ खुदा कहां है ।

तिरगी- अंधेरा। पासबां-रक्छख । तामीर- बना। दौरे-पीरी-बुढापे का दौर।
रिन्दगाह-शराबखाना

3 टिप्‍पणियां:

  1. ये सुलगते हुवे दिल की दास्तां है, , मेरे रग रग में यारों धुआं धुआं है ।
    बड़ी खूबसूरती से धुंए को समेटा है और बयाँ किया है ।

    जवाब देंहटाएं
  2. आदरणीया शारदा अरोरा जी व माधव जी को हौसला अफ़ज़ाई के लिये शत शत धन्यवाद, इस उम्मीद के साथ कि गाहे-ब-गाहे आप यूं ही ब्लाग विसिट करते हुए टिप्पणी करते रहेंगे,मेरी इल्तज़ा है कि कोई पंक्ति कमज़ोर हो या ग़ज़ल का भाव पक्छ कमज़ोर लगे तो ज़रुर लिखें , शुक्रगुज़ार रहूंगा।

    जवाब देंहटाएं