तेरी यादों की नदी फिर बह रही है,
फिर ज़मीने-दिल परेशां हो गई है।
ख़्वाबों के बिस्तर में सोता हूं अब मैं,
बे-मुरव्वत नींद मयके जा चुकी है।
दिल ये सावन की घटाओं पे फ़िदा है,
तेरी ज़ुल्फ़ें ही फ़िज़ाओं की ख़ुदी है।
मैं कहानीकार ,तुम मेरे अदब हो,
मेरी हर तहरीर तुमसे जा मिली है।
नाम तेरा ही बसा है मेरे लब पे,
दिल्लगी है दिल की, या दिल की लगी है।
इक छलावा हो गई लैला की कसमें,
मजनूं के किरदार पर दुनिया टिकी है।
महलों की दीवारों पे शत शत सुराख़ें,
झोपड़ी विशवास के ज़र पर खड़ी है।
जान देकर हमने सरहद को बचाया,
पर मुहल्ले की फ़ज़ायें मज़हबी हैं।
हुस्न के सागर में दानी डूबना है,
कश्ती-ए-दिल की हवस से दोस्ती है।
शनिवार, 21 अगस्त 2010
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