इक धूप का टुकड़ा भी मेरे पास नहीं है,
पर अहले जहां को कोई संत्रास नहीं है। ( अहले जहां - जहां वालों को )
मंझधार से लड़ने का मज़ा कुछ और है यारो,
मुरदार किनारों को ये अहसास नहीं है।
कल के लिये हम पैसा जमा कर रहे हैं ख़ूब,
कितनी बची है ज़िन्दगी ये आभास नहीं है।
मासूम चराग़ों की ज़मानत ले चुका हूं,
तूफ़ां की वक़ालत मुझे अब रास नहीं है।
मैं हुस्न के वादों की परीक्षा ले रहा हूं,
वो होगी कभी पास ये विश्वास नहीं है।
अब सब्र के दरिया में चलाऊंगा मैं कश्ती,
पहले कभी भी इसका गो अभ्यास नहीं है।
ग़ुरबत का बुढापा भी जवानी से कहां कम,
मेहनत की इबादत का कोई फ़ांस नहीं है।
आज़ादी का हम जश्न मनाने खड़े हैं आज,
बेकार ,सियासी कोई अवकाश नहीं है।
अब भूख से मरना मेरी मजबूरी है दानी,
हक़ में मेरे रमज़ान का उपवास नहीं है।
शनिवार, 17 सितंबर 2011
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thakns to Chandra bhooshan ji.
जवाब देंहटाएंबहुत ही खुबसूरत रचना ....
जवाब देंहटाएं.......धन्यवाद् .....
बहुत ही खुबसूरत रचना| धन्यवाद्|
जवाब देंहटाएंकल के लिये हम पैसा जमा कर रहे हैं ख़ूब,
जवाब देंहटाएंकितनी बची है ज़िन्दगी ये आभास नहीं है।
ज़िंदगी के यथार्थ को उद्घाटित करती ग़ज़ल।
हिंदी के शब्द इसके ख़ूबसूरती में वृद्धि कर रहे हैं।
Thanks to Suresh jI ,PatalI ji and Mahendra Verma ji.
जवाब देंहटाएंखूबसूरत गज़ल ! हर शेर गंभीर अर्थों से सम्पृक्त है ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंसाधना जी का आभार।
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