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Global Voices हिन्दी में
रफ़्तार
चिट्ठाजगत

शनिवार, 17 सितंबर 2011

धूप का टुकड़ा।

इक धूप का टुकड़ा भी मेरे पास नहीं है,
पर अहले जहां को कोई संत्रास नहीं है। ( अहले जहां - जहां वालों को )

मंझधार से लड़ने का मज़ा कुछ और है यारो,
मुरदार किनारों को ये अहसास नहीं है।

कल के लिये हम पैसा जमा कर रहे हैं ख़ूब,
कितनी बची है ज़िन्दगी ये आभास नहीं है।

मासूम चराग़ों की ज़मानत ले चुका हूं,
तूफ़ां की वक़ालत मुझे अब रास नहीं है।

मैं हुस्न के वादों की परीक्षा ले रहा हूं,
वो होगी कभी पास ये विश्वास नहीं है।

अब सब्र के दरिया में चलाऊंगा मैं कश्ती,
पहले कभी भी इसका गो अभ्यास नहीं है।

ग़ुरबत का बुढापा भी जवानी से कहां कम,
मेहनत की इबादत का कोई फ़ांस नहीं है।

आज़ादी का हम जश्न मनाने खड़े हैं आज,
बेकार ,सियासी कोई अवकाश नहीं है।

अब भूख से मरना मेरी मजबूरी है दानी,
हक़ में मेरे रमज़ान का उपवास नहीं है।

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही खुबसूरत रचना ....
    .......धन्यवाद् .....

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही खुबसूरत रचना| धन्यवाद्|

    जवाब देंहटाएं
  3. कल के लिये हम पैसा जमा कर रहे हैं ख़ूब,
    कितनी बची है ज़िन्दगी ये आभास नहीं है।

    ज़िंदगी के यथार्थ को उद्घाटित करती ग़ज़ल।
    हिंदी के शब्द इसके ख़ूबसूरती में वृद्धि कर रहे हैं।

    जवाब देंहटाएं
  4. खूबसूरत गज़ल ! हर शेर गंभीर अर्थों से सम्पृक्त है ! बहुत खूब !

    जवाब देंहटाएं