ज़िन्दगी इक मशीन बन चुकी है,
बेबसी की ज़मीन हो चली है।
काम का बोझ बढते ही जा रहा,
पीठ की छाती फटने सी लगी है।
सच का छप्पर चटकने को हुआ,
झूठ की नींव पुख़ता हो रही है।
लैला मजनूं का कारवां ख़ामोश,
ये हवस की सदाओं की सदी है।
पेड़ उगने लगे हैं पैसों के,
पर मदद की जड़ें उखड़ गई हैं।
गांव के खेत तन्हा से खड़े हैं,
कारख़ानों में महफ़िलें सजी हैं।
आसमां ख़ुद ही झुकना चाहता ,पर
कोशिशों की ज़ुबां दबी दबी हैं।
अब सियासत तो धर्म का बाज़ार,
इक तवायफ़ सी बिकने को खड़ी है।
महलों में ज़ोर ज़ुल्म के अरदास,
शांति के मद में दानी झोपड़ी है।
शनिवार, 11 सितंबर 2010
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बेहतरीन!
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