दर्दो- ग़म आंसुओं का तलबगार हूं,
मैं तो इल्मे-वफ़ा का ग़ुनहगार हूं।
मुझपे इन्सानियत का करम तो है पर,
बदजनों के लिये मैं पलटवार हूं।
धर्म फिर बांट देगा मुझे देखना,
मुल्क का डर,कहां मैं निराधार हूं।
वो सनकती हवाओं सी बेदर्द है,
मैं अदब के चराग़ों सा दिलदार हूं।
तुम हवस के किनारों पे बेहोश हो,
सब्रे सागर का बेदार मंझधार हूं।
मेरे आगे ख़ुदा भी झुकाता है सर,
मैं धनी आदमी का अहंकार हूं।
बेवफ़ाई की दौलत मुझे मत दिखा,
मैं वफ़ा के ख़ज़ाने का सरदार हूं।
ऐ महल ,झोपड़ी की न कीमत लगा,
अपनी कीमत बता,मैं तो ख़ुददार हूं।
रहज़नी रेप हत्या के दम बिकता हूं,
मैं नये दौर का दानी अख़बार हूं।
शनिवार, 18 सितंबर 2010
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धर्म फिर बांट देगा मुझे देखना,
जवाब देंहटाएंमुल्क का डर,कहां मैं निराधार हूं।
-क्या बात है, वाह!
समीर लाल जी को हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल सलाम।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ...हर शेर कमाल का है..ज़माने की नब्ज़ पकड़ता है
जवाब देंहटाएंमकता कुछ ज्यादा ही भा गया
रहज़नी रेप हत्या के दम बिकता हूं,
मैं नये दौर का दानी अख़बार हूं।
अपना ही कहा एक शेर याद आ गाय|
जिसमे न हो क़त्ल की दंगों धमाको की खबर
ऐसा इक नायब सा अख़बार बनकर देखिये|
ब्रह्माण्ड