हमारा घर भी जला दो जो रौशनी कम हो,
हमारी झूठी मुहब्बत की बानगी कम हो।
अगर ग़रीबों की करनी है सेवा, ये तभी हो
सकेगा जब ख़ुदा-ईश्वर की बंदगी कम हो।
पड़ोसी ,दोस्ती के बीज़ गर न रोपे तो,
हमारे खेतों से क्यूं फ़स्ले दुश्मनी कम हो।
मिले न राधा तो सलमा से ना ग़ुरेज़ करो,
कि बेवफ़ाओं की गलियों की चाकरी कम हो।
कभी संवारा करो ज़ुल्फ़ों को सरेबाज़ार,
तराजुओं के इरादों की गड़बड़ी कम हो।
उतार दूं तेरी आंखों के दरिया में कश्ती,
तेरी ज़फ़ाओं की गर धरती दलदली कम हो।
उंचे दरख़्तों से क्या फ़ायदा मुसाफ़िर को,
किसी के काम न आये वो ज़िन्दगी कम हो।
भले दो घंटे ही हर कर्मचारी काम करे,
मगर ये काम हक़ीक़ी हो काग़जी कम हो।
मिलेगी मन्ज़िलें कुछ देर से सही दानी,
हमेशा जीत की दिल में दरीन्दगी कम हो।
शनिवार, 3 दिसंबर 2011
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नर्म निवेदन है की इस पोस्ट को कॉपी
जवाब देंहटाएंपेस्ट कर अपनी पोस्ट जारी करें ताकि
अधिक से अधिक लोगों तक जानकारी
पहुंचे-
http://cartoondhamaka.blogspot.com/2011/12/blog-post_420.html#links
उंचे दरख़्तों से क्या फ़ायदा मुसाफ़िर को,
जवाब देंहटाएंकिसी के काम न आये वो ज़िन्दगी कम हो।
बहुत खूब!
आपकी यह रचना सच्चाई से रुबुरु करवाती हैं ......
जवाब देंहटाएंसुरेश शर्मा जी,अनुपमा जी और सुनिल कुमार जी का अभार।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद समीर लाल साहब।
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