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Global Voices हिन्दी में
रफ़्तार
चिट्ठाजगत

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

मुसाफ़िर

बंद राहों के सफ़र का मैं मुसाफ़िर,
पैरों में बेहोशी, पर उन्मादी है सिर।

तन में ज़ख़्मों का दुशाला इक फ़टा सा,
चप्पलों में ख़ून का दरिया है हाज़िर।

सेहरा है दीनो-ईमां का गले में,
मेरा ही ख़ूं देख दुनिया समझे काफ़िर।

सब्र का झंडा गड़ा था दिल के छत पे ,
लड़ता तूफ़ाने-हवस से कैसे आख़िर।

अब नहीं पढती किताबे-दिल को लैला,
ग़मे-मजनू का बने अब कौन मुख़बिर।

बैठ्के -दिल में रसोई का धुआं है ,
इक मुकदमा आग का, आंगन पे दाइर।

तन के दरवाज़ों को कचरों की अता,
मन की गलियों में नही दिखता मुहर्रिर।

बेवफ़ाई के महल के, सुख भी नाज़ुक,
शौक का सीमेन्ट सदियों से शातिर।

बीवी का दिल, ग़ै्रों के पैसों पे कुर्बां,
बात ये कैसे करूं दुनिया को ज़ाहिर।

उलझनों की बेड़ियां माथे पे दानी,
मुश्किलों का कारवां घर में मुनाज़िर।


अता-देन ,मुनाज़िर- आंखों के सामने। मुख़बिर--ख़बर देने वला।

2 टिप्‍पणियां:

  1. सब्र का झंडा गड़ा है दिल के छत पे,
    लड़ता तूफाने-हवस से कैसे आखिर।

    बहुत गहरे अर्थों वाला शे‘र

    आप के ब्लॉग में पहली बार आया हूं, अच्छा लग रहा है...बधाई।

    जवाब देंहटाएं