महफ़िलें भी आज बेहद तन्हा हैं
बज़्मे दिल में बेरुख़ी का पर्दा है।
जो समंदर सा दिखे किरदारर से
वो किनारों की ग़ुलामी करता है।
इश्क़ का घर सब्र से मजबूत है
हुस्न की छत पे हवस का सरिया है।
नेक़ी मौक़ों की नज़ाकत पर टिकी
चोरी करना सबको अच्छा लगता है।
मन की दीवारें सुराख़ो से भरीं
जिसके अंदर हिर्स का जल बहता है।
ज़िन्दगी को हम ही उलझाते रहे
आदमी जीते जी हर पल मरता है।
अब मदद की सीढियों सूखी हैं पर
शौक के घर बेख़ुदी का दरिया है।
हां रसोई ,रिश्तों की बेस्वाद है
देख कर कद, दूध शक्कर बंटता है।
दानी का दिल है चराग़ों पर फ़िदा
आंधियों से अब कहां वो डरता है।
शनिवार, 20 नवंबर 2010
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