नींव बिन जो हवाओं में खड़ा है
मेरी ग़ुरबत के मकां का हौसला है।
टूटे हैं इमदाद के दरवाज़े लेकिन
मेहनत का साफ़, इक पर्दा लगा है।
सीढियों पर शौक की काई जमी है
छत पे यारो सब्र का तकिया रखा है।
आंसुओं से भीगी दीवारे -रसोई
पर शिकम के खेत में, सूखा पड़ा है।
बेटी की शादी के खातिर धन नहीं है
इसलिये अब बेटी ही, बेटा बना है।
सुख से सदियों से अदावत है हमारी
ग़म ही अब हम लोगों का सच्चा ख़ुदा है।
सैकड़ों महलों को गो हमने बनाया
पर हमारा घर, ज़मीनें ढूंढ्ता है।
बंद हैं अब हुस्न की घड़ियां शयन में
इश्क़ के बिस्तर का चादर फ़टा है।
हां अंधेरा पसरा है आंगन के सर पे
रौशनी का ज़ुल्म, दानी से ख़फ़ा है।
बुधवार, 10 नवंबर 2010
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सुख से सदियों से अदावत है हमारी
जवाब देंहटाएंग़म ही अब हम लोगों का सच्चा ख़ुदा है।
बहुत ही शानदार ग़ज़ल।
बेटी की शादी के खातिर धन नहीं है
जवाब देंहटाएंइसलिये अब बेटी ही, बेटा बना है।
सुख से सदियों से अदावत है हमारी
ग़म ही अब हम लोगों का सच्चा ख़ुदा है।
हर एक शेर दिल को छूता है। धन्यवाद।
टूटे हैं इमदाद के दरवाज़े लेकिन
जवाब देंहटाएंमेहनत का साफ़, इक पर्दा लगा है।
बहुत ही सुन्दर पंक्तियां भावमय प्रस्तुति ।
टूटे है इमदाद के दरवाजे लेकिन
जवाब देंहटाएंमेहनत का साफ़ ,एक पर्दा लगा है.
बहुत अच्छी ग़ज़ल. बधाई.
v k verma
अच्छी ग़ज़ल !
जवाब देंहटाएंमहेन्द्र भाई , कपिला जी, सदाजी , विजय वर्मा जी और वाणी जी
जवाब देंहटाएंआपके कमेन्टस मेरे लिये किसी धरोहर से कम नहीं , शुक्रिया।