क्या भरोसा ज़िदगी का
वक़्त की नाराज़गी का।
इश्क़ के बादल भटकते
दे पता अपनी गली का।
हुस्न की लहरों से बचना
ये समंदर है बदी का।
फूलों को समझाना आसां
ना-समझ है दिल कली का।
आंधी सी वो आई घर में
थम चुका है कांटा घड़ी का।
दौड़ने से क्या मिलेगा
ये सफ़र है तश्नगी का।
बन्धनों से मुक्त है जो
मैं किनारा उस नदी का।
चांद के सर पे है बैठी
क्या मज़ा है चांदनी का।
ग़म खड़ा है मेरे दर पे
क्या ठिकाना अब ख़ुशी का।
बेच खाया दानी का घर
ये सिला है दोस्ती का।
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
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बेच खाया दानी का घर
जवाब देंहटाएंये सिला है दोस्ती का....
ये भी सच ही है ...
अच्छी ग़ज़ल !
ग़म खड़ा है मेरे दर पे
जवाब देंहटाएंक्या ठिकाना अब ख़ुशी का।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति दिल को छू गयी।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंअना जी ,वाणी जी,वन्दना जी व अनुपमा जी का धन्यवाद।
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