दोस्तों ने कर दिया बरबाद घर
दुश्मनों से अब नहीं लगता है डर।
कब मिलेगी मन्ज़िलों की दीद, कब
ख़त्म होगा तेरे वादों का सफ़र।
जिसके कारण मुझको दरवेशी मिली
है इनायत उसकी सारे शहर पर।
आशिक़ी क्या होती है क्या जानो तुम
क़ब्र में भी रहता है दिल मुन्तज़र।
छोड़ दूं मयख़ाने जाना गर तू, रख
दे अधर पे मेरे, अपने दो अधर।
कश्ती-ए- दिल है समन्दर का ग़ुलाम
लग नहीं जाये किनारों की नज़र।
हौसलों से मैं झुकाऊंगा फ़लक
क्या हुआ कट भी गये गर बालो-पर।
छोड़ कर मुझको गई है जब से तू
है नहीं इस दिल को अपनी भी ख़बर।
है चरागों सा मुकद्दर मेरा भी
दानी भी जलता है तन्हा रात भर।
मुन्तज़र -- इन्तज़ार में। फ़लक - आसमां
बालो-पर- बाल और पंख
शनिवार, 11 दिसंबर 2010
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कश्ती-ए- दिल है समन्दर का ग़ुलाम
जवाब देंहटाएंलग नहीं जाये किनारों की नज़र।
सुन्दर अभिव्यक्ति!