भुरभुरा है दिल का गागर,
क्यूं रखेगा कोई सर पर।
हिज्र का दीया जलाऊं,
वस्ल के तूफ़ां से लड़ कर।
उनकी आंखों के साग़र,
ग़म बढाते हैं छलक कर।
जब से तुमको देखा है सनम,
थम गया है दिल का लश्कर।
भंवरों का घर मत उजाड़ो,
फूल, बन जायेंगे पत्थर।
झूठ का आकाश बेशक,
जल्द ढह जाता है ज़मीं पर।
ग़म, किनारों का मुहाफ़िज़
सुख का सागर दिल के भीतर।
न्याय क़ातिल की गिरह में,
फ़ांसी पे मक़्तूल का सर।
आशिक़ी मांगे फ़कीरी,
दानी भी भटकेगा दर-दर।
शनिवार, 25 दिसंबर 2010
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सुन्दर!
जवाब देंहटाएंग़म, किनारों का मुहाफ़िज़
जवाब देंहटाएंसुख का सागर दिल के भीतर।
बढ़िया !
सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति .
जवाब देंहटाएंअनुपमा जी , वाणी जी ,संगीता स्वरूप ( गीत) जी , वंदना जी व कैलाश शर्मा जी का शत शत आभार।
जवाब देंहटाएंआप सबको नववर्ष की शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंग़म, किनारों का मुहाफ़िज़
जवाब देंहटाएंसुख का सागर दिल के भीतर।
संजय जी कुछ कहूँगी तो शब्द कम पड जायेंगे। दूसरी बात अभी इतनी नायाब गज़ल कहने तक नही पहुँच पाई इस लिये सिर्फ लाजवाब ही कह सकती हूँ। सच मे आप बहुत अच्छी गज़लें लिखते है।