मुहब्बत तेरी मेरी कहानी के सिवा क्या है,
विरह के धूप में तपती जवानी के सिवा क्या है।
तुम्हारी दीद की उम्मीद में बैठा हूं तेरे दर,
तुम्हारे झूठे वादों की गुलामी के सिवा क्या है।
समन्दर ने किनारों की ज़मानत बेवजह ली,ये
इबादत-ए-बला आसमानी के सिवा क्या है।
तेरी ज़ुल्फ़ों के गुलशन में गुले-दिल सूर्ख हो जाता,
तेरे मन में सितम की बाग़वानी के सिवा क्या है।
पतंगे-दिल को कोई थामने वाला मिले ना तो,
थकी हारी हवाओं की रवानी के सिवा क्या है।
न इतराओ ज़मीने ज़िन्दगी की इस बुलन्दी पर,
हक़ीक़त में तेरी फ़स्लें ,लगानी के सिवा क्या है।
शिकम का तर्क देकर बैठा है परदेश में हमदम,
विदेशों में हवस की पासबानी के सिवा क्या है।
ग़रीबों के सिसकते आंसुओं का मोल दानी अब,
अमीरों के लिय आंखों के पानी के सिवा क्याहै।
शनिवार, 9 जुलाई 2011
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
लाजवाब....खूबसूरत ग़ज़ल....
जवाब देंहटाएंशुक्रिया वर्षा जी हौस्ला अफ़ज़ाई के लिये।
जवाब देंहटाएं