मरने की उम्मीद में बस जी रहा हूं,
अपनी सांसों का कफ़न खुद सी रहा हूं।
तेरी आंखों के पियाले देखे जब से,
मैं शराबी तो नहीं पर पी रहा हूं।
जनता के आइनों से मैं ख़ौफ़ खाता ,
मैं सियासी चेहरों का पानी रहा हूं।
तुम तवायफ़ की गली की आंधियां, मैं,
बे-मुरव्वत शौक की बस्ती रहा हूं।
क्या पता इंसानियत का दर्द मुझको,
सोच से ता-उम्र सरकारी रहा हूं।
काम हो तो मैं गधे को बाप कहता,
दिल से इक चालाक व्यापारी रहा हूं।
इश्क़ में तेरे ,हुआ बरबाद ये दिल,
हुस्न के मंचों की कठपुतली रहा हूं।
जग, पुजारी है किनारों की हवस का,
सब्र के दरिया की मैं कश्ती रहा हूं।
मत करो दानी हवाओं की ग़ुलामी,
मैं चरागों के लिये ख़ब्ती रहा हूं।
शनिवार, 30 जुलाई 2011
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भिक्षाटन करता फिरे, परहित चर्चाकार |
जवाब देंहटाएंइक रचना पाई इधर, धन्य हुआ आभार ||
http://charchamanch.blogspot.com/
शुक्रिया रविकर जी।
जवाब देंहटाएंतेरी आंखों के पियाले देखे जब से,
जवाब देंहटाएंमैं शराबी तो नहीं पर पी रहा हूं।
achha prayas ,... shubhkamnayen ../
डा. संजय भईया... बेहतरीन ग़ज़ल को पढ़ के आनंद आ गया...
जवाब देंहटाएंसादर..
खूबसूरत गज़ल
जवाब देंहटाएंMany many thanks to Udaya singh ji ,S.M. Habib and res sangita (geet ji) .
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