चांदनी का बंद क्यूं दरवाज़ा है,
चांद आखिर किस वतन का राजा है।
अपनी ज़ुल्फ़ों को न लहराया करो,
बादलों का कारवां धबराता है।
नेकी की बाहों में रातें कटती हैं ,
सुबह फिर दर्दे बदी छा जाता है।
मोल पानी का न जाने शहरे हुस्न,
मेरे दिल का गांव अब भी प्यासा है।
घर के अंदर रिश्तों का बाज़ार है,
पैसा ही मां बाप जीजा साला है।
फ़र्ज़ की पगडंडियां टेढी हुईं,
धोखे का दालान सीधा साधा है।
क्यूं प्रतीक्षा की नदी में डूबूं मैं,
जब किनारों का अभी का वादा है।
मैं पुजारी ,तू ख़ुदा-ए- हुस्न है,
ऊंचा किसका इस जहां में दर्ज़ा है।
पी रहां हूं सब्र का दानी शराब,
अब हवस का दरिया बिल्कुल तन्हा है।
शुक्रवार, 15 जुलाई 2011
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