रात की तंग गलियों में सपने मेरे गुम रहे,
उनकी यादों के बेदर्द तूफ़ां भी मद्ध्म रहे।
नींद आती नहीं रात भर जागता रहता हूं,
मेरी तन्हाइयों के शराफ़त भी गुमसुम रहे।
ज़ख्मों का बोझ लेकर खड़ा हूं दरे-हुस्न पर,
दर्द ,गम ,आंसू ,रुसवाई ही मेरे मरहम रहे।
वस्ल का चांद परदेश में बैठके ले रहा,
इश्क़ की फ़ाइलों में विरह के तबस्सुम रहे।
प्यार की आग की लपटों से कौन बच पाया है,
दिल के मैदानों से दूर बारिश के मौसम रहे।
चांदनी मुझसे नाराज़ थी जब तलक दोस्तों,
तब तलक मेरे घर जुगनुओं के तरन्नुम रहे।
ईदी का फ़र्ज़ हुस्न वाले निभाते नहीं,
इसलिये आश्क़ी की गिरह में मुहर्रम रहे।
कर्ज़ की फ़स्लों से फ़ायदा ओ सुकूं कब मिला,
प्यार के खेतों पर बैंकों के खौफ़-मातम रहे।
गोया हर दौर में सैकड़ो लैला मजनू हुवे,
दुनिया वाले भी हर दौर में दानी ज़ालिम रहे।
शनिवार, 23 जुलाई 2011
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आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
जवाब देंहटाएंयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग इस ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो हमारा भी प्रयास सफल होगा!
डा: रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी का आभार।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत गजल...आभार.
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.
श्क्रिया डोरोथी जी।
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