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रफ़्तार
चिट्ठाजगत

रविवार, 4 जुलाई 2010

ख़ुदकुशी

इश्क़ भी इक ख़ुदकुशी है , ज़िन्दगी से दुश्मनी है।
वो बडी मासूम है पर , मुझको पागल कर चुकी है।
छात्र हूं मैं वो गुरू है , उसके हाथों में छड़ी है।
नींद से महरूम हूं मैं , सारी दुनिया सो रही है ।
मै पतन्गा फ़िर जलूंगा , शमा की महफ़िल सजी है।
क़त्ल दिल का हो चुका है,पीठ पीछे वो खडी है ।
रुकना क़िस्मत मे नहीं है, ज़िन्दगी गोया नदी है।
मैं चराग़ों का सफ़र हूं ,तू हवाओं की गली है।
चांदनी जब से ख़फ़ा है , जुगनुओं से दोस्ती है।
उड़ चुके हैं होश कूछ यूं , चाल में आवारगी है।
ज़िन्दगी आखिर है क्या बस, बेबसी ही बेबसी है।

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